आज स्मृतियों के झरोखों से यह चित्र दिखा तो मन ने इस कविता की रचना कर डाली।
जूठे बेर राम के
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शबरी को मिली ख़बर
राम आने वाले हैं।
उसकी कुटिया से ही
वे गुज़रने वाले हैं।।
कुटिया के बाहर थीं
झाड़ियाँ मीठे - बेर की।
तोड़ने में अनेक बेर
उसने न तनिक देर की।।
चख कर रखीं अलग
मीठे - बेरों की ढेरियाँ।
अंदर - बाहर बार - बार
लगाने लगीं फेरियाँ।।
परिचय है मेरा यह
शबरी की चेरी हूँ मैं।
दशा उसके दिल की
सब जानती हूँ मैं ।।
संग - संग उसके मैं भी
बाट जोह रही राम की।
मन में माला हर - पल
जप रही राम - नाम की।।
राम - सीता, लक्ष्मण की
देखो आ रही झाँकी है।
सुंदर - सी एक तस्वीर
मानों भित्ति पर टाँकी है।।
कुटिया में हमारी अब
पधार गए ईश राम ।
हृदय - प्रफुल्लित मानों
देख लिए चारों धाम।।
आँखें चुँधिया रहीं
देख रूप ललित ललाम।
पेड़ - पीछे छिप गई मैं
देखन को दृश्य अभिराम।।
शबरी ने जूठे - बेर
खिला दिए राम को।
धन्य हुई शबरी तो
बिन दिए दाम को ।।
कुटिया हमारी देखो
स्वर्ग बन गई हो जैसे।
हर्षित प्रकृति करती
नर्तन हो, झूम ऐसे ।।
शबरी ने खाए अब
राम के जूठे बेर ।
मेरे लिए उसने फिर
लगा दिए सारे ढेर।।
जाते ही राम के
मैं फिर से आ गई ।
जूठे - बेर राम के
सारे मैं खा गई ।।
प्रभु - प्रसाद पाकर के
धन्य मैं भी हो गई ।
शबरी - संग मैं भी
भवसागर पार हो गई ।।
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अभिव्यक्ति एवं फ़ोटो - प्रमिला कौशिक
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