सड़क के उस पार , सागर की गहराई में ,
दलदल में , आसमान के आखिरी बादल तक ;
दरबदर कभी मंदिर , कभी मस्जिद , कभी गुरुद्वारा तो चर्च
तपती धूप तो कभी ठंडी वृक्ष की छांव में ;
न जाने कब कहां किस तरह हर मोड़ पर
मैं ढूंढती फिरती मेरे प्रश्नों के जवाब !
मेरी दुविधाएं , मन में चलती रही व्यथा ,
प्रयत्न हजार किये फिर मन में आया एक और सवाल !
खुद ही तु खुद का जब बन बैठा मालिक ,
ना शरीर मेरा , न मन , ना हदय , न आत्मा पूर्ण रूप से ;
मेरे ही भीतर खोजनी है मुझे शांति चित की !
- Urmi