मिट चुकी है इंसानियत, अब हैवानियत बाकी है,
किससे डरते हो तुम, अब और क्या मरना बाक़ी है..
अपनो ने अपनो को त्यागा,
सम्बन्धों ने बहिष्कार किया है..
क्या मृत्यु का ख़ौफ़ वाक़ई इतना है?
तुमने मानवता को भी शर्मसार किया है..
जब कांधा ना मिल सका किसी अर्थी को,
मृत देह का भी तुमने तिरस्कार किया है..
तज आया एक बेटा माँ को,
ममता की अश्मिता को भी तार तार किया है..
आंसुओ को अवसर देखा तुमने,
मजबूरियों का सौदा किया है
अपनत्व को तुम भूल गए हो,
इंसानियत को शर्मसार किया है..
विमुख हो गया जो कर्तव्य पथ से,
उसका अब क्या जीना बाकि है..
ज़मीर बेच दिया जिसने गर्दिश में,
उसका अब क्या मरना बाकी है..
मृत्यु जब अटल सत्य है तो फिर डरना क्या है...
इस तरह ही जीना है तो फिर मरना क्या है?