कोई अब्दुल तो कोई सुलेमा समझता है।
कोई मौलवी तो कोई उलेमा समझता है।
भला पागलों का भी कोई मजहब होता है।
कोई हिन्दू तो कोई मुसलमाँ समझता है।
कोई पागल तो कोई गरीब बुलाता है।
कोई गालिब तो कोई रकीब बुलाता है।
मेरे तंग पैजामे को देख कर मुझको।
कोई साहिल तो कोई रफीक बुलाता है।
टोपी का रंग देख कर लोग दूरियाँ बना लेते है।
बढ़ी दाढ़ी को देख कर लोग कुछ और समझ लेते हैं।
मैं वर्षों से खोज रहा हूँ कुम्भ में बिछड़े परिवार को।
मैं दुख का मारा हूँ यहां लोग क्या से क्या समझ लेते हैं।
-Arjun Allahabadi