गुरू (शरीर)व्यक्ति नहीं तत्व हैं,गुरु अर्थ नहीं स्वयं का बोध हैं।
बहुआयामी हैं वो अन्तर्यामी,समस्त तीर्थों के(उद्गम)स्वामी हैं।
वही मार्ग हैं वही प्रणेता,सकल सृष्टि के वे ही तत्वेता।
वे ही शोधक वे ही शोध हैं,सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म जो भारी से भारी हैं।
स्वयं वो गुरू ही शंकर त्रिपुरारि हैं,सर्वगुणभंडार शास्वत अविकारी हैं।
जीव की अल्पता के एकमात्र विकल्प हैं,सिध्द साधकों के जो एकनिष्ठ संकल्प हैं।
करूणानिधि की करूणां का बरसात हैं,गुरु अप्रत्यक्ष नहीं अपितु साक्षात हैं।
क्रमशः✍️
-सनातनी_जितेंद्र मन