एक उम्र ही तो जीना चाहता था वो भी अब पहाड़ हो चला।
कभी वट वृक्ष हुआ करता था जो वो अब ताड़ हो चला।।
कहता नहीं था कमी इस जीवन की किसी से कभी।
वो किसी से भी अपनी न कहना ही अब जैसे रार हो चला।
गिले-शिकवे न रखा कभी भी किसी से, वो न रखना भी अब.. मन का खार हो चला।।
इस चला-चली में न जाने और क्या-2 चलेगा।
जो हर हाल में खुश था खुदी से,जब वही बेहाल हो चला।। मुक्त था शुद्ध था बुद्ध था फिर भी अल्प था जो।
उन्मुक्त हुआ विशुध्द हुआ प्रबुध्द हुआ वो विस्तार होकर भी बेकार हो चला।।
जब से ये जाना है ठगनी बड़ी हरिमाया ये । तो
रिझाने उस इक खेवनहार को इस संसार से चला।।
व्यवहार के व्यापार से अब मैं दरबार को चला।।
🌷तुम तजि और कौन पे जाऊँ🌷...
-सनातनी_जितेंद्र मन