पगडंडी
खिड़की पर हूं मैं खड़ी
निहारती हुई पगडंडी,
आड़ी तिरछी बढ़ती हुई,
दूर तक जाती हुई।
कहां से आती है ये
कहां तक पहुंचती है ये,
क्यों खींचती है ये आज मुझे
एक अज्ञात खोज के लिए,
खोज है उस बालिका की
जो रहती थी यहीं कहीं,
स्वछंद नृत्य करती हुई
क्रांति के गीत गाती हुई,
तड़प कर पुकारती हूं मैं उसे
छिप गई है जो यहीं कहीं,
आवाज आ रही है तभी
निकालो मुझे, मैं यहां दबी,
समूची शक्ति बटोर कर
आवाज देती हूं मैं फिर उसे
निकल कर आती है वही
स्वछंद युवती ध्वजा लिए।