शीर्षक : संकोच से प्रेम तक...
आज सुबह तुम्हे देखा तो फिर इस विचार ने मन को वशीभूत कर दिया।
और तुम्हे यूँ देख वही विवाह के बाद वाली स्मृतियाँ फिर लौट आयीं।
तुम्हारा ये मंद स्मित देखकर लगता ही नहीं कि कब तुम्हारे साथ ५० (50) वर्ष, _दीये मे जलते कपूर की तरह उड़ गए।_ मानो कल की ही बात है जब तुम विवाह करके घर में आयी थी।
_एक दूसरे से पूर्णतया अपरिचित हम दोनों ही जब एकदुसरे से मिलने में संकोच करते थे।_ जब तुम साड़ी पहनने तक के लिए मुझे कमरे से बाहर भेज दिया करती। _ये तुम्हारी लज्जा ही थी,_ जिसने कामदेव के बाण की तरह मेरे मन को भेद उसे प्रेम करने पर विवश कर दिया।
इतने समय में _यह संबंध कब इतना प्रगाढ़ हो गया,_ पता ही नही चला। जब तुम सही अर्थ में मेरी वामाङ्गीनि बन गई। तुमने उस लज्जा की सीमा को लांघ _स्वयं को मुझे समर्पित कर दिया।_
भले ही समाज, संतान और संपत्ति ने हमें त्याग दिया हो। हमारे यौवन ने भी हमें छोड़ दिया पर _मुझे तो तुममे आज भी वही सौंदर्य दिखता है, जो ५० वर्ष पूर्व था।_
तुम्हे दिया हर वचन याद है मुझे। इतने वर्षों बाद भी तुम और मैं यहा है, साथ है! _कया यह पर्याप्त नहीं?_ प्रिये, मैं यही था और तुम्हारे साथ ही जीवनपर्यन्त यही रहूँगा।
*तो क्या हुआ की अब वो लज्जा और संकोच नहीं, पर उसके स्थान पर हमारा प्रेम तो है.....*
- *PRATHAM SHAH*