"ग़ज़ल"
हसरतें दिल में दबी सी रह गई,
ख्वाइशे सहमी सहमी सी रह गई ।
कहने को तो बहुत कहा मगर,
बातें बहुत सी अनकही रह गई ।
दिल पर पत्थर रखा था मैंने मगर ,
आंखों मेंं कुछ नमी सी रह गई ।
कोशिशें तो बहुत ही हुई मगर ,
शायद कहीं कुछ कमी सी रह गई ।
खत्म कहां हुई है सारे ताल्लुकात ,
कुछ यादें जेहन में जमी सी रह गई ।
"मित्र" को गुजरे हुए एक अरसा हुआ ,
अब नाम की ज़िंदगी सिर्फ रह गई ।
-मनिष कुमार "मित्र"