कौन से दांत पर रक्त है वक्त का...
झांक आए सभी शेर की दाढ़ तक...
राम जाने ये गली कहाँ तक जाएगी...
बाजरे का सफ़र, खेत से भाड़ तक..
गोलियां जब घुसी वक्त की जांघ में,
एक पैदा हुआ आदमी में मरद...
भेड़िया एक फिर हो गया बेअदब,
आ गया है शहर भूल के अपनी हद...
साँस लीजे रात में कुछ सोचकर,
बदचलन हो गई सुबह से कुछ, हवा,
क्या पता कब फटेगा ये ज्वालामुखी,
इस जलन की दिखती नहीं कोई दवा...
दफ़न जिनको किया रात में, वे सुबह,
कब्र को तोड़ गर्दन उठाने लगे....
भेडिये बस्तियों में समाने लगे...
लोग गाँवों को छोड़ जाने लगे....
रिंकु चटर्जी(गीतांजलि)
कलम से क्रांति तक