शाम की चाय
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एक नशा ज़ेहन पर
चढ़ाने लगा है,
बे-ख़ुदी छाने लगी है
कुछ गोरी तो कुछ काली
ये सूरत मुझे भाने लगी है।
रखी मेज पर वो प्याली
नज़र मुझे आने लगी है,
मेरे हाथों में आने को
तबियत उसकी भी
मचलाने लगी है।
कितनी अच्छी है ये
मेरी शाम की चाय,
मौसम-ए-बहार में इश्क़
मुझ से ये फ़रमाने लगी है।
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-सन्तोष दौनेरिया
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