तुम्हारी स्मृति
चौपाल पर बैठे हुए
ताश के पत्ते फेंटते हुए
जो वात्सल्यता देखी
तेरे चेहरे पर
लगे पिता से तुम;
स्नेह से आमंत्रित
करते हुए
खुद बैठ कर मुझे
खिलाते हुए,
लगे पिता से तुम;
सोचा नहीं था तब
बन जाओगे तुम
पिता सदृश मेरे
स्वीकार कर मुझ
विद्रोहिणी को,
और झेल लोगे
सारे व्यंग्य बाणों को
अपने चट्टान सदृश
व्यक्तित्व से
एक सैनिक की तरह;
तुम्हारा होना
एक छत्र का होना,
जो बचाता है
सर्दी, गर्मी और
भीषण ताप से;
तुम्हारा जाना जैसे,
घर के सबसे मजबूत
खंभे का ध्वस्त होना;
तुम्हारा स्नेह,
ऋण है मुझ पर,
चुका सकी नहीं मैं
इस जीवन में,
क्षमा करना अपने
उसी स्नेह से तुम,
जिस स्नेह से स्वीकार
किया तुमने मुझे।