क़ातिल ऑ॑खें
-----------------
अजी मुझे पता है कि क्या मुझे हुआ है
क़त्ल मेरा दो ऑऺखों के जरिए हुआ है
अगरचे कोई गवाह तो नहीं है मेरे पास
क़त्ल फ़क़त आपकी ऑऺखों से हुआ है
ख़ंजर से भी तेज है आपकी ये पलकें
क़त्ल़ पलक के कोर के सहारे हुआ है
नज़र उठी और तीर दिल में उतर गया
खुले-आम ये क़त्ल दिन-दहाड़े हुआ है
बड़ी क़ातिल है आपकी मासूम निगाहें
इन नज़रों से क़त्ल बग़ैर रूके हुआ है
---------------------
- सन्तोष दौनेरिया
(अगरचे - हालाँकि, गवाह - साक्षी, फ़क़त - सिर्फ, ख़ंजर - चुरा, खुले आम - सबके सामने, दिन दहाड़े - दिन या दोपहर में, मासूम - निरपराध, बग़ैर - बिना)