हर रोज़ मैं अपनी छत की मुंडेर से,
दूर तक फैली ज़िन्दगी को देखा करती..
हर सुबह एक नई सुबह के इंतज़ार में
हर शाम वही पुरानी शाम ढला करती..
यहां बैठे बैठे ही..
मेरी निगाहें नाप सकती हैं मिलों की दूरी..
जो तुम कभी मिलों का सफर तय कर भी ना नाप पाए हों..
मेरा दिल महसूस कर सकता है हर वो एहसास जो,
तुम पास होकर भी नहीं समझ पाते..
हां इसी छोर से मैंने हर रोज़ चाँद को ढलते देखा है..
हां इसी छोर से मैंने हर रोज़ सूरज को पिघलते देखा है..
कभी कभी मन करता है मिटा दूँ खुद को इसी छोर से,
पर ठहर जाती हूँ ये सोचकर..
हर शाम एक चाँद मेरे इंतज़ार में निकलता है..
औऱ शायद वो सूरज भी मुझे ढलते नही देख सकता..
और फिर में बेख़ौफ़ सी बेपरवाह यूँही बैठी रहती हूं,
अपनी ही धुन में...