मरने का डर
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सावन की शय पर
हो गये आत्मा तक हरे
नीम के पेड़
लगने लगी बैठकी मोरों की
डाली-डाली
मोरें ऊँचाईयों पर नहीं
बैठती हैं नीम,शीशम और
आम के पेड़ों की नीची डालियों पर
जहाँ से देखतीं रहती हैं वे
जीवित चहलपहल
भोर भी लिए आती है
यादें हरियाली तीज की
धूप की मार से उठती है
मिट्टी में सुंधी हरीरी गंध की गमक
धरती पर
आम की गुठली भी उगी है
इस बार पूरे दमखम से घूरे पर
वह चाहती है बच्चों के हाथ का
पपीरा बनना
जिसको माँएँ भी बजा लेती थी
अपने व्यस्त दिनों में
बच्चों की जिद्द पर
लेकिन मरने का डर
हमें जीने नहीं देता इस बार
सावन में |
-कल्पना मनोरमा