जब "मैं" आ जाता है
तो सब चला जाता है
"मैं" सुंदर
"मैं" गुणवान
दुनिया के सभी गुणों में
"मैं" धनवान
ये सिद्ध करता है हमारी
सर्वोच्च गुणों की पराकाष्ठा को
लेकिन क्या सच में
गुणों की कोई सीमा है?
ख़ूबसूरती का कोई अंत है?
गुण तो वो समंदर है
जितना नीचे जाओ
ये उतना गहरा होता जाता है
ख़ूबसूरती तो वो सादगी है
जो मुस्कूराहट से और निखरता है
ख़ुद को सर्वोच्च समझना
हमारी अज्ञानता को दर्शाता है
ये वो भ्रमजाल है
जिसमें व्यक्ति स्वंय फंसता जाता है।
- अनिता पाठक