कृषक ! कैसे भूल सकें तुमको ?
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जो पेट हमारा भरते हैं ,खुद रूखी सूखी खाते हैं ,
वे हमको ज़िंदा रखते हैं ,और स्वयं कष्ट ही पाते हैं
हम कैसे उनको भूल सकें जो हमें हँसाए रखते हैं
ये खुद भूखे सो जाते हैं ,पर हमें जिलाए रखते हैं
जब पेट हमारे भर जाएं ,तब इनका ध्यान नहीं आता
हम सोच नहीं पाते हैं क्यों इनका काम नहीं भाता
माटी की सौंधी खुशबू से ये, अपनी देह सजाते हैं
धरती ही माता है इनकी ,ये आस लगाए रखते हैं
अंबर पर इनके नेत्र सजल ,वर्षा की बूंदों की हलचल
ये झूम खुशी से जाते हैं ,जब जल की दिखती है कलकल
इनको जो हम न बचाएंगे ,इस धरती का फिर क्या होगा ?
हम जैसे जो इतराते हैं ,उनका क्या पेट भरा होगा ?
आओ,सोचें कुछ करें यदि ,कुछ कर सकते हैं तो मिलकर
ये भी भूखे न रहें यदि हम सब कुछ करलें संग चलकर
इनके सिर पर भी छत होवे ,जीवन में कुछ तो कर लें हम
यदि यही नहीं होंगे तो हम सब के जीवन का फिर क्या होगा ?
डॉ. प्रणव भारती