शहर से दूर दूर बस एक गांव चाहिए,
जिंदगी का आखिरी वो मुकाम चाहिए।
सिमेंट की वादियों में दम घुट रहा है अब,
मुझे गांव की मिट्टी की वो महक चाहिए।
ये शहर की हर गली भरी है व्यापार से,
मुझे गांव का वो शुद्ध व्यवहार चाहिए।
खो चुका हूं मैं शहर में अपना वो अंदाज,
मुझे गांव वो गली वो पुराने दोस्त चाहिए।
न मैं किसी का हूं न कोई है मेरा शहर में,
मुझे गांव से बिछड़ा वो परिवार चाहिए।
थक चुका हूं मैं अब शहर के षड्यंत्र से,
मुझे गांव का वो प्यारा सम्मान चाहिए।
- हितेश डाभी 'मशहूर'