*भगवान विष्णु के अवतार*----
*कथा (4)*
*नरसिंह अवतार:*
नृसिंह अवतार हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से चतुर्थ अवतार हैं जो वैशाख में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अवतरित हुए
भगवान विष्णु ने चौथे अवतार के रूप में नरसिंह अवतार है। भगवान विष्णु ने यह अवतार दानव असुर हिरण्यकश्यप के वध और भक्त प्रह्लाद के भक्ति से प्रसन्न होकर लिया था। नरसिंह अवतार का स्वरूप मानव और शेर को मिलाकर बना था, इसलिए इस अवतार को नरसिंह अवतार कहते है। भगवान नरसिंह का धड़ नर का और सर सिंह यानी शेर का था, साथ ही उनके नाखून सिंह की तरह थे। यह अवतार भगवान ने हिरण्यकश्यप को ब्रह्मा जी के द्वारा मिले हुए वरदान के कारण लिया था, क्योंकि ब्रह्मा जी से हिरण्यकश्यप को न मनुष्य और न जानवर के द्वारा मृत्यु हो ऐसा वरदान प्राप्त था।
*कौन था हिरण्यकश्यप?*
हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष दोनों कश्यप ऋषि के पुत्र थे, जो महान वीर परंतु आसुरी प्रवित्ति के थे। हिरण्यकश्यप ने भगवान ब्रह्मा की तपस्या करके उनसे वरदान प्राप्त किया था कि उसका वध न मनुष्य से हो, न जानवर से, न देवता से, न दिन में और न रात में, न घर के भीतर न घर के बाहर, न अस्त्र से न सस्त्र से, न जमीन में न आकाश में हो।
जब उसने भगवान व्रह्मा से अमृत्व का वरदान मांगा तो उन्होंने नही दिया क्योंकि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है , तब उसने यह विचित्र वरदान मांगा था। उसने यह सोच लिया था कि वो लगभग अमर हो गया है और उसने सारे संसार मे आतंक मचा दिया था।
*हिरण्यकश्यप के वध की कथा:*
हिरण्यकश्यप के छोटा भाई था हिरण्याक्ष जिसका वध भगवान विष्णु के वराह अवतार के द्वारा हुआ था। जिसकी कथा हमारे पिछले भाग (3) में प्रसारित हो चुकी है.
हिरण्याक्ष के मृत्यु के उपरांत हिरण्यकश्यप को बहुत आघात हुआ और वो देवताओं को और ख़ासकर भगवान विष्णु को दुश्मन समझने लगा। उसने सारे संसार मे आतंकित करके स्वर्ग में भी आधिपत्य जमा लिया और अपने आप को ही भगवान कहलवाने लगा।
भगवान विष्णु को हिरण्यकश्यप अपना परम शत्रु समझता था परंतु उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और दिन रात भगवान हरि की भक्ति किया करता था। जब यह बात हिरण्यकश्यप को पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और प्रह्लाद से भगवान विष्णु की जगह अपनी भक्ति करने को कहने लगा।
परंतु जब प्रह्लाद नही माने तो उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया, उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि प्रह्लाद को ले जाकर पर्वत शिखर से फेक दे। जब सैनिको ने प्रह्लाद जी को फेका तो वे भयभीत नही हुए और हरी नाम जपते रहे क्योंकि उनको अपनी भक्ति और भगवान पर पूर्ण विस्वास था। जब वे पर्वत से नीचे गिरे तो उनको कुछ नही हुआ जैसे वो पुष्पों पर गिरे हो ।
जब पर्वत से फेकने पर कुछ नही हुआ तो उसने आदेश दिया कि खौलते हुए तेल में डाल दे, जब उन्होंने ऐसा किया तब भी कुछ नही हुआ।
जब किसी भी युक्ति से काम नही हुआ तो उसने अपनी बहन होलिका को बुलाया उसको वरदान था कि उसको अग्नि जला नही पाएगी, हिरण्यकश्यप ने होलिका को आदेश दिया कि प्रह्लाद को लेकर चिता में बैठ जाये और अग्नि लगाकर जलाया जाएगा । हिरण्यकश्यप को लगता था कि होलिका वरदान की वजह से जलेगी नही।
परंतु जब वो बैठी प्रह्लाद को गोद मे लेकर और आग लगाई गई तो होलिका जल गई परंतु प्रह्लाद को कुछ नही हुआ। (होलिका को ब्रह्मा ने कहा था कि तुम अगर गलत कार्य के लिए इस्तेमाल करोगी तो वरदान का फल नही मिलेगा परंतु होलिका भूल गयी थी क्योंकि उसको शक्ति का मद था।)
*नरसिंह भगवान का प्रागट्य और हिरण्यकश्यप का वध:*--
होलिका के जल जाने के बाद हिरण्यकश्यप ने अपना आपा खो दिया और भगवान को शत्रु मानकर प्रह्लाद को धमकाते हुए बोलने लगा कि अपने भगवान को बुला। तब प्रह्लाद जी ने कहा कि भगवान तो कण कण में है।
हिरण्यकश्यप एक स्तंभ की तरफ इशारा करके बोला क्या इसमे भी तेरा भगवान है, जब प्रह्लाद ने हां कहा।
हिरण्यकश्यप उस स्तंभ को तोड़ने लगा तो भगवान विष्णु नरसिंह के रूप में प्रगट हुए जो अत्यंत क्रोध में थे, वो सिंह की तरह हुंकार करते हुए हिरण्यकश्यप पर वार करने लगे।
भगवान नरसिंह जो न नर थे न जानवर, हिरण्यकश्यप को उठाकर घर के दरवाजे पर ले गए जो न घर के अंदर था न बाहर था। उस समय शाम थी अर्थात न दिन थी न रात। हिरण्यकश्यप को उठाकर जंघा पर बिठा लिया जो न धरती पर था न आकाश पर। फिर उन्होंने अपने नाखूनों(जो न अस्त्र थे न सस्त्र) से हिरण्यकश्यप का पेट फाड़कर वध कर दिया