झूठा !
खेतों के किनारे एक कुआ था। उसमें बहुत से मेंढक रहते थे। दिनभर धमा चौकड़ी मचाते। किसी दिन एक पनिहारिन की बाल्टी में दुबक कर एक छोटा सा मेंढक वहां से निकल भागा। मेंढक ने लंबा चौड़ा खेत देखा तो खुल कर सांस ली और वहीं एक किनारे घास में अपना घर बना कर रहने लगा।
उसके ठाठ थे। जब किसान भैंस का दूध दुहता तो वो भी इर्द- गिर्द मंडराता रहता। जब भैंस तालाब में बैठने जाती तो वो भी कीचड़ में अठखेलियां करता हुआ उसके साथ घूमता। किसान की लड़की नहा कर जब अपने कपड़े सूखने के लिए फैलाती तो धूप लगने पर मेंढक उसके कपड़ों के घेर की सिलवटों में दुबक जाता।
भैंस के चरने से जब आसपास की घास से मच्छर उड़ते तो उछल - उछल कर उसका नाश्ता होता।
मजे थे।
एक दिन गांव में बाढ़ आ गई। जल थल एक हो गया।
कुएं की मुंडेर पर उछलते कूदते उसे पुराने दोस्त मिल गए। सब पानी में हाथ- पैर मार रहे थे।
उसने अपने दोस्तों को अपने मौज मस्ती के सारे किस्से सुनाए। इतने दिन बाद जो मिले थे। सब बताया- भैंस उसकी दोस्त है, कैसे वो उसके साथ खेलता है, कैसे वो उसे मच्छरों का नाश्ता कराती है, कैसे वो किसान की लड़की के घाघरे में सो जाता है...
बाढ़ उतरते ही सब वापस कुंए में !
अब छोटा मेंढक वहां सबको अपने किस्से सुनाता, भैंस कैसे दूध दे, भैंस कैसे घास खाए, भैंस कैसे तालाब में तैरे, भैंस कैसे डकराए।
सब मेंढकों को जलन होती। ईर्ष्या में जलते।
एक दिन न जाने क्या हुआ, तेज़ आंधी और धूल के गुबार में भागती- दौड़ती भैंस कुएं में आ गिरी।
बेचारी मर गई।
सारे मेंढक उसके चारों तरफ़ ये देखने जमा हो गए कि ये कौन है।
छोटे मेंढक ने बताया- यही तो है भैंस!
सारे मेंढक ज़ोर से हंसे। बोले- अरे ये तो हिले न डुले, दूध दे न पानी में नहाए, नाश्ता कराए न पगुराए! झूठा कहीं का।
उस दिन से छोटे मेंढक का नाम "झूठा" ही पड़ गया।