गेरुआ इशारा
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आई थी दौड़कर मैं
तुम रूकोगे कुछ और देर
मेरे साथ ,
पर ये क्या ?
तुम जा रहे हो
बड़ी मुश्किल से बना पाई थी मन
झील के किनारे तुम्हारे साथ बैठ
खुद को भूल जाने का
व्यस्त दिन को हांफता छोड़ कर
जब हुई थी तैयार आने को
तो चिंताओं ने खींचा था मेरा हाथ,
फर्श पर उग आये थे
अनेक काम अनायास
लेकिन तभी
खिड़की की झीर्री से मिला था
तुम्हरा गेरुआ इशारा
जिसकी धनक से संतरी हो भाग पड़ी थी
मैं तुमसे मिलने झील पर
किंतु ये क्या ?
हो सकता है कि तुम्हारे आचमन से
खुश हो रहा हो सागर
परंतु मैं उदास हूँ
नहीं आता है डूबना मुझे
तुम्हरी तरह
और अगर डूब सकती तो
निश्चित ही डूब जाती अभी तुम्हारे साथ
जैसा कि तुम डूबते हो रोज़
ढेरों तपन और थकन के साथ
और जब निकलते हो तो
बिल्कुल ताजा होकर
मुझे लुभाता रहा है हमेशा से ही
तुम्हरा ये रोचक खेल
इसी कारण तुम्हीं से प्रेरित हो
कह उठती हूँ बार -बार
कि नहीं चाहिये मुझे
दूधिया स्निग्ध चाँदनी
मुझे तो
गेरुआ दग्ध तपिश दे दो
जिससे बना सकूं खुद को मैं
खरा सोना ।
कल्पना मनोरमा