हज़ारों तरह के ये होते हैं आंसू !
क्या आपने किसी फ़िल्म में किसी एक्टर को रोते देखा है?
ये सवाल ही बेतुका है। हमारी मसाला फ़िल्मों का तो एक ज़रूरी और चटपटा मसाला है- आंसू।
पुरानी फ़िल्मों में जब कोई रोता या रोती थी तो उसे दोनों हाथों की अंगुलियों से आंसू पौंछते दिखाया जाता था। लेकिन बाद में एक ही हाथ की अंगुली से बारी- बारी से दोनों आंखों के आंसू पौंछे जाने लगे।
इस बदलाव का श्रेय मीना कुमारी को दिया जाता है।
मीना जी के एक हाथ में किसी दुर्घटनावश एक अंगुली कट जाने के कारण कुल चार ही अंगुलियां थीं, लिहाज़ा वो अपना ये हाथ दर्शकों के सामने लाने से बचती थीं। "ट्रेजेडी क्वीन" मीना कुमारी के लिए किसी फ़िल्म में आंसुओं से बचना तो संभव न था।
क्या आपने कभी गौर किया है कि ज़्यादातर फ़िल्मों में रोते समय अभिनेत्रियों की एक ही आंख से आंसू गिरा करता था। दूसरी भीगी तो होती थी, पर उससे आंसू छलकता नहीं था। आख़िर क्यों?
इसका कारण ये था कि मेकअप- मैन या लेडी दृश्य से पहले एक्टर की आंख में ग्लिसरीन डाला करते थे। इस गाढ़े द्रव की पहली बूंद के लिए तो अभिनेत्रियां इंतजार कर लेती थीं किन्तु दूसरी आंख में फिर बूंद टपकने में कुछ देर लगती थी, और ज़्यादा इंतजार में पहली आंख से आंसू टपक जाने का अंदेशा रहता था, तो दूसरी आंख में झटपट अधूरी बूंद ही लगा देने की कोशिश की जाती थी।
इस तरह पदार्थ के "विस्कॉसिटी इफैक्ट" के कारण अभिनेत्रियां एक तरफ़ का आंसू ही पौंछ कर काम चलाती थीं। कई फ़िल्मों के क्लोज- अप शॉट्स इस सिद्धांत की प्रामाणिकता पर मोहर लगा देंगे।
समय के साथ निर्देशकों ने इस समस्या का तोड़ निकाल लिया। वे गाढ़ी ग्लिसरीन की जगह आंख में गुलाबजल डलवाने लगे जो गाढ़ा नहीं होता था। दोनों आंखों में बराबर गिरता और रोने के परफैक्ट शॉट आते।
समय बदला। धीरे - धीरे हीरो ने कहना शुरू किया- " पुष्पा,आई हेट टीयर्स" और निर्माताओं को रोना- धोना बंद करवाना पड़ा।
और फ़िर तो ज़माना ऐसा अा गया कि कैमरा रोने वालों पर नहीं, बल्कि रुलाने वालों पर होता। आंसुओं को दिखाने का झंझट ही खत्म !