"लॉक डाउन के इस पार"
लॉक डाउन के इस पार
अक्सर मुझे ऐसा महसूस होता है
की पूरी दुनिया सिमट चुकी है
चारो दिशाएं आपस में मिल गई हैं
हर सड़कें छोटी हो गई हैं
गलियों समाप्त हो चुकी हैं
महल झोपडी में तब्दील हो गए हैं
झोपड़ी भी झोपड़ी नही लगतीं हैं
लॉक डाउन के इस पार
अक्सर मुझे ऐसा महसूस होता है
सूरज धरती का अगूंठा चूसता है
चाँद चांदनी से आलिंगन करता है
हवाओं के झोके प्रकृति के होंठ चूमते हैं
पेड़ों की टहनियां धरती की गोद में बैठकर
उसके बक्षस्थल से जैसे खेलती हैं
जंगली जानवरों के जैसे दिन बहुर आएं हैं
पंछी खुले स्वच्छ आसमान में उड़ते हैं
लॉक डाउन के इस पार
अक्सर मुझे ऐसा महसूस होता है
हिमालय की चोंटी नीचे उतर कर
गोमुख के हरहराते जल को पी रही है
गंगा जनुमा सरस्वती की गुफ्तगू ऐसे
जैसे ये तीनो बहने सदियों बाद मिली हैं
सागर की लहरें पूरी ताकत से जैसे
किनारों को आगोश भर लेना चाहती हैं
बरसों के बाद भेल मछलियां खुल कर
सागर की छाती में ख़ुशी से फरफरातीं हैं
रचनाकार-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'