शब्द ऊब गए हैं,
यूँ मन के व्यथित
सरोवर मे,
चाह कर भी
नहीं निकल पाते ये,
सीमाएं जो तय कर दी गईं
भावनाओं की,
देखता हूं उस शून्य से
आसमान की ओर,
और अकस्मात ही हवा का झोंका,
आकर टकराता है कानो से,
मन मष्तिष्क मे एक
वेदना सी होती है,
शरीर के खोल को छेदती जो,
अंतर्मन तक पहुंच जाती है,