पहले भी में
पहनती थी साड़ी,
बांधती थी अपने आपको,
फिर भी खुलके रहती थी।।
यूँही बात बात पर,
बिन वजह हँसा करती थी।।
पल्लू छोड़कर खुल्ला,
धीरे से चल लेती थी।।
अगर गिर जाऊ तो,
लोग कहते थे,
"संभालना जरा, गिर जाओगी
तो चोट लगेगी।।
अब भी में
पहनती हुँ साड़ी,
बांधती हुँ अपने आप को,
चलना तो दूर,
दौड़ भी सकती हूं में।।
पल्लू बांधकर कमर पर,
सिमट लेती हूं सब।।
हँसना कम ,सोचती हूं
ज़्यादा अब ।।
पर अगर गिर जाऊ
गलती से,
तो लोग कहते है,
"संभाल कर चलो,
इतना भी नही सीखा?
औरत हो तुम??"
मै तो वही हुँ,
साड़ी भी वही है,
पर बदले है कुछ लोग,
ओर बदली है
कुछ नीची
उनकी सोच...।।।