(29) रोशनी
सुबह हो गई थी
मै रोशनी से कहा
रात भी बजी सुबह तक
तू छत पर बज रही है
सुबह सुबह आज मेरी छत पर
बंदरों ने डेरा जमा लिया
बच्चों से मिलकर वो ख़ूब
अठखेलियाँ किए
कुछ फल और दाना
खा कर पानी पिए
बच्चे खूब सेल्फियाँ लिए
चाक से नहीं मै दीये से कहा
तुम और कभी इस तरह
दिवाली को छोड़कर
मुझे खुश करने आई तुम्हे याद है?
मै तो एक योगी की आदेश हूँ
जो घर घर पहुचाई
दोनो हाँथ जोड़ कर
‘नमस्कार’
मैंने उस हवा के कण से कहा
जो हवा के कणों की भीड़ से
निकल कर गायब हो गया
मै उससे बहुत कुछ कहा
पर वो नही कहा जो
मै कहना चाह रहा था!
किताब-भारत बंदी के वो इक्कीस दिन" से
लेखक-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'