My New Poem..!!!
यारों ख़ामख़ा हम दरिया से लड़ते रहे
ज़ख़्म-ए-नफ़रत भी यूँ ही कुरेदते रहे
कश्ती ही थी झर-झर छेद अलग-से
यादृच्छिक पीड़ा में भी यूँ ही जलते रहे
कटुता-वचनों-वाणी सीमाएँ तोड़ते रहे
आपसी तनाव-ओ-सरहदें भी बाँटते रहे
छूत-अछूता उच्च-नीच हदों में बंटते रहे
संपन्न-सरमाया-ओ-इजारा बटोरते रहे
अहंकार-ओ-आडंबर में ही पनपते रहे
प्रभु नामक रबको भी अनदेखा करते रहे
लाठी में उसकी नही होती आवाज़ जान
कर भी इस हक़ीक़तसे अनजान बने रहे
अब चला ही दी उसने लाठी झेलते रहो
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