ता उम्र ख्वाहिशो को संभालते चले हम।
अपनी ही नींदों के बैरी हो क्यों हो गए हम।।
खुद से ना खुदको जाना आजतक हमने।
वो समयके पहिये पे सवारी करते गए हम।।
पैसे के पीछे दौड़े दिनरात उम्रभर हम।
कर लिया हर जुगाड़ खुश रहने के वास्ते हमने।।
जाना दिल तो खुस नही इस भौतिकता से।
जब पकडी राह आघ्यात्मिकता की हमने।।
नशा ऐसा लगा फिर अलख वैराग्य का।
खुद को पाया जैसे कुदरत और खुदा में ।।
ये जीव ये प्राणी ये बक्शीश है ईश्वर की।
किया मौन वार्तालाप इनसे जाना ये तर्क।।
मेरे इर्दगिर्द ही है खुदा का आशियाना।
फिर क्यों मंदिर में भी उसका ठिकाना?