My New Poem ...!!!
सिफँ चार...
दिवार-औ-द्वारों से...
घर घर नही होता....
घर के हर एक सदस्य ...
एक दूसरे के लिए
हमदर्दी-औ-ग्लानि ...
भाइचारा आत्मीयता....
माँ-बापसे प्यार-औ-दुलार.....
और परस्पर मान-मयादाँ..,.
जैसी ना-हिलने...
ना-दिखनेवाली दिवारे....
सदा बनाए रखे तब ही...
घर घर होता है....!!!!
वनाँ...आज कल तो...
घर ...!!!!
या संपत्ति का बेफ़िज़ुल दिखावा....
या माँ-बाप के बुढ़ापे का घर-निकाल ...
या कोटँ-कचोरियाँ का जीवनभर चढ़ावा...
या भाई-भाई की”जंग” का अखाड़ा ....
या खुन-ख़राबे का महज़ बहाना होता हैं..!!
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