My New Poem...!!!
क्या ज़रूरत थी
मुझे दो घरों की!
जब दोनो घरों के
लिए मैं हूँ ही पराई
जिस ऑगन में पली
बड़ी हूई वो भी पराया
जिस बाबुल की लाड़ली
वक़्त आने पे वो भी पराया
ममता की छाँव भी तो
भ्रमित हो जाती है पराई
ब्याह के बंधन से जूड़ी
जिस शाख से वो भी पराई
बहू तो मान ही लेगें हमें
पर बेटी के नाम पे है पराई
और तो और बहू का घर
कभी नहीं हे तो वह पराया
कहे दुनियाँ भी पति का तो है
घर पत्नियों तो होती ही पराई
गर बाप कीं मिलकत में भी है
हिस्सा तो कुछ बाक़ी पराया
वाह रे प्रभु तेरी लीला अजीब
वंश जिस बेल से चले वही पराई
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