क्रांती की फसल उगाता करता हूं।
जब जयचंदो के मन में कुछ अरमान मचलने लगते हैं।
जब जब गरीब की बस्ती पर बुलडोजर चलने लगते हैं।।
जब आंदोलन करते किसान पर गोली दागी जाती है।
जब किसी दरिंदे की चंगुल में कोई अभागी जाती है।।
जब आंख मींचकर के सत्ता गूंगी बहरी हो जाती है।
खादी के मन में लालच की खाई गहरी हो जाती है।।
तब शांति धरा की शांति छोड़ एक युग परिवर्तन लाता हूं।
मैं कलम धार को तेज बना क्रांती की फसल उगाता हूं।।
जब वन्देमातरम जैसे पावन नारे खलने लगते हैं।
जब आस्तीन के बिषधर अपना जहर उगलने लगते हैं।।
जब देशद्रोहियों की फांसी पर रोष दिखाई देता है।
जब दिल्ली का सिंहासन भी ख़ामोश दिखाई देता है।।
जब भारत भू पर ही दुश्मन के झंडे पाए जाते हैं।
जब काश्मीर में सैना पर, पत्थर बरसाए जाते हैं।।
जब राजनीति के आगे मैं असहाय स्वयं को पाता हूं।
मैं कलम धार को तेज बना क्रांती की फसल उगाता हूं।।
क्रमशः।
रचनाकार
भरत सिंह रावत