संध्या गई, निशा आई
सपनों की बारात सजाई
एक लड़की दूधिया सी
जिसकी आवाज मिश्री सी
जिसकी आंखें हिरनी सी
हल्की-हल्की गदराई सी
जिसका मक्खन सा स्पर्श
बालों को सहला कर
कानों में धीरे से बोली
कहां खोए कहां सोए
चलो ! मेरे साथ आज
तट पर सागर किनारे
बांधेगे लहरों को बाहों में
समेतेंगे हवाओं को मुठठी में
बनाकर सागर को स्याही
भिगोकर मेरी जुल्फ से
तुम मुझ पर कोई गीत लिखना
मैं सजाऊंगी सेज तुम प्रीत लिखना
मैं तेरे गठीले सीने पर जीत लिखूंगी
हम मिलकर नई रीत लिखेंगे
तुम सुर मैं संगीत
तुम चित्र मैं सप्तरंग
तुम फूल मैं सूगंध
तुम जिस्म मैं जान
तुम पथ मैं मंजिल
तुम नाव मैं साहिल
तुम पक्षी मैं घोंसला
तुम हैसियत मैं हौसला
तुम हाथ मैं अंजलि
जिन्दगी यूँ उड़ चली
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