ग़ज़ल
मेहनत के बाद पाया है फल बेच रहे हैं।
घाटा ही सही अपनी फसल बेच रहे हैं।।
कर्जे में डूब कर बड़े मजबूर हैं हलधर।
बैलों के साथ आज वो हल बेच रहे हैं।।
किस पर यकीन और किस पे ना यकीन हो।
संवेदनाएं अब सभी दल बेच रहे हैं।।
पैसों के लिए इस तरह से आदमी गिरे।
पति पत्नि भी एकांत के पल बेच रहे हैं।।
कल तक तो पिलाते थे सभी मुफ्त में पानी।
बोतल में भरके आज वो जल बेच रहे हैं।।
मिलता था जहां दूध दही छाछ औ मक्खन।
बृजधाम में अब लोग गरल बेच रहे हैं।।
ईमानदार आदमी का है समय कहां।
छलिया बड़ी सफाई से चल बेच रहे हैं।।
कैसे बचाई जाएंगी मुझको बताईए।
जब बेटियों को लोग सबल बेच रहे हैं।।
रावत भी है तैयार लो बोली लगाईए।
बाजार में हम अपनी ग़ज़ल बेच रहे हैं।।
रचनाकार
भरत सिंह रावत
भोपाल
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