गुजर जाता है दिन सारा, सुकूं का पल नहीं मिलता।
मुसीबत खूब मिलती है,मगर कुछ हल नहीं मिलता।।
कड़ी मेहनत भी करता हूं, बड़ी ईमानदारी से।
मगर उम्मीद के माफिक, मुझे प्रतिफल नहीं मिलता।।
तुम्हारे और मेरे बीच है , खाई बड़ी गहरी।
तुम्हें सोने की आदत है, मुझे पीतल नहीं मिलता।।
यतीमों के लिए एहसास करवा दो मोहब्बत का।
जिन्हें बचपन में ममता का ,कभी आंचल नहीं मिलता।।
कभी तकलीफ पर गैरों की, निकलें आंख से आंसू।
तो उन बूंदों से बढ़ कर, कोई गंगाजल नहीं मिलता।।
ठिठुरती सर्द रातों में, जला कर आग जीतें हैं।
किसी मुफलिस के बच्चों के लिए कंबल नहीं मिलता।।
बढ़ा कर चीर फिर से, द्रोपदी की लाज रख लें जो।
कन्हैया की तरहां रावत, यहां पागल नहीं मिलता।।
रचनाकार
भरत सिंह रावत भोपाल
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