[ जख्म--ए--जिगर ]
दर्द क्या होता है तुम्हें बतायेंगें किसी रोज़
कमाल की ग़ज़ल है तुम को सुनाऐंगे किसी रोज़...
थी उन की ये जिद के मैं जाऊँ उन को मनाने
मुझ को यह वहम था वो बुलायेंगें किसी रोज़...
ये कभी भी मैंने तो सोचा भी नहीं था
वो इतना मेरे दिल को दुखाऐंगें किसी रोज़...
हर बार रोज़ शीशे से यही पूछती हूँ मैं
क्या रुख पे तबस्सुम सजाऐंगें किसी रोज़...
उड़ने दो इन परिंदों को आज़ाद फ़िज़ाओं में
तुम्हारे हों अगर तो लौट आऐंगे किसी रोज़...
अपने सितम को देख लेना खुद ही साक़ी तुम
ज़ख्म-ऐ -जिगर तुमको दिखायेंगें किसी रोज़...
Good morning friends