क्यों लिखे "आत्मकथा" कोई !
आत्मकथा लिखना अब एक दुरूह काम है। आदमी औसतन साठ- सत्तर साल जीता है। इतने बड़े और जटिल जीवन में कभी उसके साथ हिंसा भी हुई होगी। कभी यौन व्यवहार भी हुए होंगे। अब अगर वो अपनी जीवनी में उन्हें उजागर करने की कोशिश करे तो कहा जाएगा कि उसकी किताब में हिंसा है, अश्लीलता है। यदि सीमित संकीर्ण मानसिकता के समीक्षकों, संपादकों, पाठकों से वो जीवन के ऐसे अनुभव बचा कर अपनी परिष्कृत, सेंसर्ड, संपादित कहानी लिख दे, तो फ़िर उसका औचित्य क्या है, उसकी प्रामाणिकता क्या है? हो सकता है कि वो ऐसे दृष्टांत भी छिपा जाए जहां खुद उसने हिंसा की हो, चारित्रिक कमज़ोरी का परिचय दिया हो।
फ़िर तो हो सकता है कि वो अपनी बेईमानी,अपना भ्रष्टाचार, अपनी आसुरी वृत्तियां भी छिपा जाए।
फ़िर वो अपनी कहानी कहां हुई, वो तो अपनी जीवनगाथा की मीठी खीर हुई, जिसमें पवित्र पावन एकतरफा सोच के मेवे पड़े हुए हों।
महात्मा गांधी के "सत्य के प्रयोगों" को अगर अनुशासित, सब अच्छा - अच्छा छापने और पसंद करने वालों के भरोसे छोड़ा गया होता तो क्या वो कभी प्रकाश में आते?