ज़िन्दगी हो जो चेतना ना हो तो क्या कीजै।
बीत रहें हों दिन औ रातें
जो होश ही ना हो तो क्या कीजै।।
आँखें भर आती हैं
उसकी रचनाओं को देख कर
रचनाओं में खुद की सुध ना हो तो क्या कीजै।
था अंधेरी स्टेशन औ बस की सवारी थी
वो आई पगली सी बेचारी थी।
मेकअप था चेहरे पर लिपेपुते
और बेसुधी की खुमारी थी।
बोलती तो वह भी हम सी थी
लेकिन हम सी नहीं थी।
सबकी नज़रें उठी उस तरफ
वो कैसी गजब की नारी थी।
खुश तो वह भी कम न थी
पर देखकर दुख हो तो क्या कीजै।।