शाम की ग़जल सुबह की फ़िज़ा हो गई l
सारी बातें इक पल उसकी हवा हो गई ll
राहत के पल कुछ तो गुज़ार लेती ही l
पर कम्बख़्त दिल से बगावत हो गई ll
चाँदनी थी चार दिन की फिर जाने कहाँ ग़ुम हो गई l
दीप की जलती लॉ दिए का सारा हौसला ले गई ll
मन तो था बहुत उड़ने का ऊँचे आसमान में l
पर गुरूर में उड़ती धूल आँखों पर परदा कर गई ll