हा कुछ अलग से ही जज्बात है मेरे
जमी पर रह कर भी ख्वाब अलग है मेरे ।
इन्सानियत की क्या बात करू में ।
जहा अपने ही पराये हो चले
वहाँ अपनी क्या बात करु में ।
क्या करे यहाँ तो जमाना ही हमारी
ख्वाहिशो के आगे झीद पर अडा है ।
कोई पूछे तो क्या कहूँ कोन हुं में ?
तकदीर से हारा हुआ एक ख्वाब हूं में ।
चाहे रूठे ये जमाना सारा
इस दुनिया की चहल-पहल मे
अपने जज्बातो को कुचलना मुझे नहीं आता ।
हा कुछ अलग से ही जज्बात है मेरे।