इन्हीं की तरह
शहर का वह चौराहा अक्सर सुनसान रहता था क्योंकि वह कुछ बाहरी जगह थी, जहाँ यातायात के साधन कुछ कम आते थे। वहीँ एक किनारे बने छोटे से मंदिर के बाहर दो भिखारी रहते थे। शरीर से अपंग लाचार भिखारी थे, सो रहना क्या, दिन भर में जो कुछ मिल गया, पेट में डाला, मंदिर के पिछवाड़े लगे नल से पानी पिया, और पड़े रहे।
एक वृद्धा अक्सर सुबह के समय मंदिर आया करती थी। वह आरती करती और कुछ थोड़ा बहुत प्रसाद उन दोनों के आगे डाल कर अपने रास्ते चली जाती।
एक दिन बुढ़िया उन दोनों के आगे प्रसाद का दौना रख ही रही थी, कि उनकी बदबू, गंदगी और आलस्य से खिन्न होकर बोल पड़ी- "अरे, पानी का नल पास में लगा है, और कुछ नहीं करते तो कम से कम हाथ-मुंह तो धो लिया करो।"
एक भिखारी बोल पड़ा- "माँ,एक दिन मैं नहाया था, उस दिन मैंने देखा कि मेरे पास एक मक्खी भी नहीं फटकी। जबकि रोज़ सैंकड़ों मक्खियाँ यहाँ मेरे तन पर भिनभिना कर गंदगी से अपना भोजन पाती हैं। तब मैंने सोचा,क्या मुझे किसी का भोजन छीन कर उसे दरबदर करने का अधिकार है?"
वृद्ध महिला अब सोच रही थी कि शायद शहरवासी भी इन्हीं की तरह सोच पाते तो ये भिखारी काहे को बनते।