यूँ हम अपनी किसमत बदलने लगे हैं।
तुम्हे देखकर सिर्फ चलने लगे हैं।
वो तालीमका बोझ बच्चों को दे कर।
खयालों के पर को कुचलने लगे हैं।
मसाइल जो सुलजाने आये यहां थे।
वही तो हमे आज खलने लगे हैं।
भला अपने बच्चों को क्यों कोसते हो।
तुम्हारे कदम पर ही चलने लगे हैं।
फ़क़त इतना दस्तूर है ज़िंदगी का।
गिराते है सब को जो चलने लगे है।
महबूब सोनालिया