*मैं बेपरवाह*
कुछ बेपरवाह सी
होने लगी हूँ मैं
थोड़ा खुद मे ही
खोने लगी हूँ मैं.....
साथ अच्छा लगता है
मुझे अपना
खुद से ही बातें
करने लगी हूँ मैं.....
जीवन पथ पर
साथी हैं बहुत मगर
न जाने क्यों
तन्हा ही चलने लगी हूँ मैं....
साथी पुराने फिर
मिलने लगे हैं मुझे
चाँद तारों हवाओं के साथ
चलने लगी हूँ मैं....
बचपन सखियाँ गलियाँ यादें
साथ है मेरे अब
उलझी हुई लटों को अपनी
यूँही छोड़ने लगी हूँ मैं....
सभी की फ़िक्र और
जिम्मेदारी के बीच
थोड़ा सा अपने लिए
जीने लगी हूँ मैं....
प्यार कर बैठी हूँ मैं
खुद से ही अब
इश्क़ की गलियों मे
बेपरवाह घुमने लगी हूँ मैं.....
हाँ ....ये बेपरवाहियाँ भाने लगी हैं मुझे
खुद मे ही खोने लगी हूँ मैं....
अब बेपरवाह होने लगी हूँ मैं....
शिरीन भावसार
इंदौर (मप्र)