पांच का पचास
पुरानी बात है। मैं मुंबई के दादर स्टेशन पर बैठा था। सामने से एक भीख मांगने वाला लड़का गाता हुआ आया।
लड़के को भिखारी कहना उचित नहीं होगा क्योंकि वो एक बहुत ही मार्मिक सी ग़ज़ल गाता हुआ पैसे मांग रहा था।
मैंने लड़के से कुछ देर बात की तो पता चला कि लड़का किसी गांव से मजदूरी करने यहां आया था,किन्तु एक दुर्घटना के बाद वो न तो काम कर सका और न ही वापस लौट सका।
मेरी ट्रेन आ रही थी अतः मैंने उसे पांच का नोट दिया और गाड़ी में चढ़ गया।
गाड़ी में कुछ स्कूली छात्र भी थे, एक ने इशारे से दूसरे से कहा- देख, उन्होंने भिखारी को पांच रुपया दिया है।(चालीस साल पहले ये एक बड़ी राशि थी)
लड़के का दोस्त उससे बोला- मुंबई में कोई किसी को फोकट में कुछ नहीं देता, वो पांच का पचास बनाएंगे, इससे दिया होगा। छात्र की मानसिकता देख कर मुझे अजीब लगा।
बात मुझे चुभ गई।
शाम को घर आकर मैंने यही घटना ज्यों की त्यों लिख कर लखनऊ के अख़बार स्वतंत्र भारत में डाल दी।
मैं घटना को भूल चुका था किन्तु एक दिन घर पर डाक से एक लिफ़ाफा मिला, जिसमें इस छपी हुई घटना की अख़बार की एक कटिंग थी और साथ में था पचास रुपए का एक चैक!
मैं सोचने लगा- क्या ग़लत कहा था उस विद्यार्थी ने... दुनियादारी की खासी समझ थी उसे!
मैं ट्रेन से ऑफिस आते जाते सोचता कि वो कहीं दिख जाए तो उसे बताऊं कि तुम्हारी बात में दम था!