आहत सी सभ्यता के द्वार पर ,
कब तक निहारे आंगन....
बंधन तोड़ना चाहती है....
युगों का बोझ लिये बहती रही,
थकने लगी है शायद.....
कुछ विश्राम पाना चाहती है...
अथाह जल राशि की जो स्वामिनी ,
शितिज पार होती हुई....
अंतरिक्श समाना चाहती है...
हाँ पायी है इसने मधुरता कितनी,
अब ना आँसू भी धो सके....
ये नमकीन होना चाहती है...
बंधनों में छटपटाती है बहुत,
पत्थरों को तराशती....
अब विस्तार पाना चाहती है...
बाँटती रही है जग को जीवन,
भीगी - भीगी सी नदी....
समंदर हो जाना चाहती है...
The Boss....®️