युग (लघुकथा)
प्राचीनकाल की बात है।
एकलव्य द्रोणाचार्य के पास गया और उनसे उसे तीरंदाज़ी सिखाने का अनुरोध किया।
द्रोणाचार्य ने कहा- देखो,तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं ये विद्या राजपुत्रों को सिखाता हूं।
एकलव्य ने सोचा कि गुरुदेव न तो मुझे तीरंदाज़ी सिखाना चाहते हैं और न ही मुझसे मना करना चाहते हैं। लेकिन मैं ये ज़रूर जान कर रहूंगा कि वे मुझे क्यों नहीं सिखाना चाहते।
एकलव्य ने द्रोणाचार्य से कहा- गुरुदेव, यदि आप मुझे न सिखाने का कारण नहीं बताना चाहते तो अपने मुंह से कुछ न बोलें, मैंने पांच पत्तों पर अलग अलग कुछ कारण लिख दिए हैं, आप केवल उस पत्ते को उठा कर नष्ट कर दीजिए जिस पर मुझे न पढ़ाने का असली कारण लिखा हो। इससे आपको भी कुछ नहीं कहना पड़ेगा, और मुझे भी पता चल जाएगा कि आख़िर आप मुझे तीर चलाने की विद्या क्यों नहीं सिखा सकते।
द्रोणाचार्य ने सभी पत्तों को चुपचाप पढ़ा। उन पर लिखा था -
1.आप राजपुत्रों के शिक्षक हैं,इसलिए राजा की आज्ञा लिए बिना किसी और को नहीं सिखा सकते।
2. आपकी गुरू दक्षिणा बहुत ज़्यादा है जो मेरे जैसा गरीब नहीं दे सकता।
3. दलित होने के कारण मेरे आवास पर आप आ नहीं सकते और आपके आवास पर मेरा आना वर्जित है।
4. आपने राजकुमारों को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का संकल्प लिया है, इसलिए मैं उनकी बराबरी नहीं कर सकता।
5. आप बहुत व्यस्त हैं, इसलिए मुझे समय नहीं दे पाएंगे।
ये पढ़ कर द्रोणाचार्य मन ही मन सोचने लगे कि लड़का बुद्धिमान ही नहीं, शातिर भी है जो मुझसे सच्चाई उगलवाना चाहता है।
उन्होंने सभी पत्तों को एक गड्ढे में फेंक कर मिट्टी में दबा दिया। खिन्न होकर एकलव्य वहां से चला गया।
समय गुजरता रहा, युग पर युग बीतते रहे।
फ़िर आ गया कलियुग !
कालांतर में ज़मीन में दबाए गए सभी पत्ते एक पेड़ बन कर उग आए।
उस पेड़ के नीचे बैठे द्रोणाचार्य लगातार विज्ञापन पर विज्ञापन दे रहे थे कि वे मुफ़्त में पढ़ाएंगे, सिखाने का सारा खर्च भी वे उठाएंगे, एकलव्य अाए तो सही।
पर एकलव्य कह रहा था कि उसके पास टाइम नहीं है, उसे विदेश में एडमिशन लेने की तैयारी करनी है।