मुखिया (लघुकथा)
वो एक बहुत बड़ा परिवार था। परिवार में एक मुखिया था।
मुखिया तेज़ नहीं चल पाता था, क्योंकि उसकी सांस फूल जाती थी।
वह ज़्यादा खा भी नहीं पाता था क्योंकि उसके दांत कम भी थे और कमज़ोर भी।
उसे अख़बार भी घर का कोई बच्चा ही पढ़ कर सुनाता था क्योंकि उसकी नज़र कमज़ोर थी। फ़िर भी यदि घर के जवान बच्चे देर से घर लौटे तो वह सड़क पर दूर तक देख लेता था।
उसका ख़र्च बहुत कम था, जबकि घर के कमाने वाले सभी लोग अपनी कमाई लाकर उसी के हाथ पर रखते थे।
घर खर्च के लिए मांगने पर वह एक एक रुपया इस तरह जांच पड़ताल करके देता था, मानो ये पैसे उसकी गाढ़ी कमाई के हों।
लोग कहते थे कि वो घर चला रहा है, वो दीर्घायु हो!
धीरे धीरे घर ने उसे चलाना शुरू कर दिया।
वह कहीं अा जा नहीं पाता था क्योंकि उसे कोई ले जाने वाला नहीं था।
उसकी सांस उखड़ जाती थी क्योंकि उसकी दवा कई दिन तक नहीं अा पाती थी।
वह ज़्यादा नहीं खाता था क्योंकि ज़्यादा उसे कोई देता ही नहीं था।
वह सोता कम था, क्योंकि सोचता ज़्यादा था।
घर के लोग अब उसे अपनी कमाई बताते नहीं थे,बल्कि इस कोशिश में रहते थे कि वह उस पैसे से उन्हें कुछ देदे जो उसने जवानी के दिनों में कमा कर रखा था।
उससे कोई कुछ मांगता नहीं था, बल्कि पड़ोस तक के लोग नज़र बचा कर कुछ न कुछ खाने को उसके सामने रख जाते थे।
उसे दूर पास का कुछ दिखता नहीं था, क्योंकि उसका चश्मा कई कई दिन तक टूटा पड़ा रहता था।
लोग कहते थे कि वो सब पर बोझ है,कब जाएगा दुनिया से न जाने?