कालजयी होना, शिल्प की कसौटी पर जूझना, कथ्य और प्रवाह के घाट पर सिर पटकना, ये कहानी का काम नहीं है। ये तो समीक्षकों की शब्दावली है।
कहानी के पास इतना सजने संवरने का न वक़्त होना चाहिए और न शौक़।
कहानी को रोचक या रंजक होने के भ्रम में भी नहीं पड़ना चाहिए।
कहानी तो समय की जर्जर इमारतों से मजदूर बन कर मलबे साफ़ करे।
भव्य शालीन इमारतों में पसीने और खून की बू सूंघ कर कहानी उनकी नींव पर किसी डायन की तरह नख प्रहार करे।
कहानी पर मनुष्यता का भ्रम बचाए रखने की जिम्मेदारी हो।
हां, अपना फटा आंचल उघाड़ कर किसी नवजात बच्चे को दूध पिलाती मां से दो घड़ी बात करने को कहानी कहीं बैठ जाए,वो बात अलग है। किसी प्यासे युवा परदेसी को आखों की गगरी से शीतल जल पिलाते हुए उसके खंजन नयन शरारत से फड़फड़ा उठें,वो बात अलग है।
- प्रबोध कुमार गोविल ("मांस का बेस्वाद टुकड़ा" की भूमिका में)