जाने के लिए नही जा रही हूँ मैं ...
तुझे पूरी तरह पाने के लिए जा रही हूँ मैं
इस बार तुझे पाने की आस लिए जाऊंगी
शायद तेरे दिल के खाली कमरें में लौट आऊंगी
जो अंधेरा नही था
उस दिल मे उजाला कैसे होता
जिसने मुझसे कुछ पाया ही नही था
उसका कुछ कैसे खोता ?
शायद हर पल उपलब्ध होने के कारण
मैं अस्तित्व विहीन थी
किसी पूर्व अनुभव के कारण
मैं अनछुई रगों में विलीन थी
मैं वो आग थी जिसे पहुंचती न आंच थी
मैं मोम की डली..और उसकी छवि सख्त कांच थी
तिरस्कार ही जिसको
एक मात्र अनुभव था
मैं वो प्रेमधुन थी जिसका
लय सुर तान सब तय था
थक गई हूँ खुद को तुझ संग मथते मथते
हार गई हूँ अब मैं लहर चट्टानों संग लड़ते
चलती हूं तुझे तेरी यादों में व्यस्त छोड़कर
अपनी भी यादों संग तुझे जोड़कर
तुझ पर अब कुछ भी नही थोपना
न ही कुछ तुझसे इतर है सोचना
हो सकता है पतझड़ में खाली शाखों पर,
कभी नए पल्लव आ पाएं..
शायद तू अकेलेपन में कहीं अपने मन मे
प्रेम के टूटे आईने में मेरा प्रतिरूप
रख पाए..!