शपथ ग्रहण (लघुकथा)
बूढ़ा जब अपने जाने के दिन नज़दीक देखने लगा तो उसने सोचा,अपने बच्चों को कुछ ऐसा सिखा जाऊं कि ये मेरे जाने के बाद आपस में लड़ें नहीं,और मिल जुल कर रहें।
बहुत सोचने पर उसे वही सीख याद अा गई जो कभी उसके पिता ने बचपन में उसे दी थी।
उसने अपने सभी बच्चों को बुला कर एक एक छोटी लकड़ी की टहनी दी,और कहा,इसे तोड़ो।सभी ने आसानी से उसे तोड़ दिया।फ़िर बूढ़े ने वैसी ही कुछ लकड़ियों का गट्ठर देकर उसे तोड़ने के लिए कहा।कोई तोड़ न पाया।
बूढ़े ने खुश होकर कहा- देखो, इन्हीं लकड़ियों की तरह अगर आपस में मिलकर रहोगे तो कोई तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकेगा।अलग अलग हुए,तो कोई भी तुम्हें नष्ट कर देगा।
इस सीख को देने के चंद दिनों बाद बूढ़ा स्वर्ग सिधार गएया।
ये कहानी सुनाकर वैताल विक्रम से बोला - राजन,चंद दिनों बाद चुनाव आ रहे हैं। सब दल सरकार को हटाना चाहते हैं,लेकिन सब अलग अलग होकर सरकार को ललकार रहे हैं।ऐसे तो ये सब हार जायेंगे! ये सब बूढ़े की सीख पर अमल क्यों नहीं करते?
विक्रम ने कहा - शिक्षाप्रद कहानियां बच्चों को सिखाई जाती हैं,लेकिन बच्चे वोटर नहीं होते।
विक्रम का मौन भंग होते ही वैताल ने कहा - ओह,और वह उड़ कर फ़िर उसी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में जाने की तैयारी करने लगा।