न जाने क्यों,कुछ लोग साहित्यिक परिदृश्य पर बातें करते समय बेकार की बातें लेकर बैठ जाते हैं। वैश्विक आंधी के पार्श्व में उठ रही बातों पर लट्ठ बजाई करने से पहले हमें बातों को करीने से छांट लेना चाहिए।सब बातें पीटने योग्य नहीं हैं।
मौलिकता की अवधारणा को बचाए रखना ज़रूरी है। मौलिकता खर रही है, झर रही है, कुंद हो रही है। साहित्य अपने समय को बचा कर रखने के लिए जवाबदेह है। साहित्य को समाज के समकालीन चित्र भविष्य की तह में रखने हैं,इसलिए मौलिकता उसे चाहिए। मौलिकता उस देह गंध की तरह है जो हर बदन में अलग अलग होती है। जिससे प्रेमी अंधेरे में भी अपनी प्रेमिका का तन पहचान लेता है।
शरीरों पर ब्रांडेड परफ्यूम्स पुत जाएं तो हमारे पास समय को पहचानने का जरिया नहीं रहेगा। हम केवल नर या मादा जिस्म को अलग पहचानने के ही काबिल रह जाएंगे।